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भुव॒श्चक्षु॑र्म॒ह ऋ॒तस्य॑ गो॒पा भुवो॒ वरु॑णो॒ यदृ॒ताय॒ वेषि॑ । भुवो॑ अ॒पां नपा॑ज्जातवेदो॒ भुवो॑ दू॒तो यस्य॑ ह॒व्यं जुजो॑षः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

bhuvaś cakṣur maha ṛtasya gopā bhuvo varuṇo yad ṛtāya veṣi | bhuvo apāṁ napāj jātavedo bhuvo dūto yasya havyaṁ jujoṣaḥ ||

पद पाठ

भुवः॑ । चक्षुः॑ । म॒हः । ऋ॒तस्य॑ । गो॒पाः । भुवः॑ । वरु॑णः । यत् । ऋ॒ताय॑ । वेषि॑ । भुवः॑ । अ॒पाम् । नपा॑त् । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । भुवः॑ । दू॒तः । यस्य॑ । ह॒व्यम् । जुजो॑षः ॥ १०.८.५

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:8» मन्त्र:5 | अष्टक:7» अध्याय:6» वर्ग:3» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (महः-ऋतस्य चक्षुः-भव) महान् ब्रह्माण्डरूप या संसाररूप यज्ञ का दर्शक-दिखानेवाला, सूर्यरूप में तू है (गोपाः-भुवः) किरणों का रक्षक है-किरणोंवाला है (ऋताय यत्-वेषि वरुणः) जल के लिए मेघ से जलसम्पादन करने-बरसाने के लिये जब उन्हें प्राप्त करता है, तो वरुण नाम वाला-उन्हें बरसाने, थामने और पुनः गिरानेवाला होने से वरुण होता है (अपाम्-नपात्-भुवः) आकाश में जलसंग्रह को न गिरानेवाला-थामनेवाला या वहाँ से मेघ में विद्युद्रूप से प्रकट होनेवाला-विद्युद्रूप अग्नि होता है (जातवेदः) उत्पन्न होते ही जाना जानेवाला तू (यस्य हव्यं जुजोषः-दूतः-भुवः) जिसके ओषधि आदि भोज्य को तू सेवन करता है या जिसे सेवन कराता है, उस का तू प्रेरक है ॥५॥
भावार्थभाषाः - सूर्यरूप अग्नि ब्रह्माण्ड को दिखाता या चमकता है। रश्मिमान् होने से रश्मियों द्वारा जलकणों को खींचकर आकाश में मेघों को बनाता और समय पर पुनः बरसाता है और पुनः मेघ में पहुँच कर विद्युद्रूप होकर जलों को थामता है, बरसाता भी है। पृथिवी पर अग्निरूप में ओषधि आदि को प्रेरित कर आहार कराता है। ऐसे ही विद्वान् या राजा समाज और राष्ट्र को उत्तम नीति द्वारा चमकावे, सुख की वर्षा करे और भोज्य पदार्थों को सुखमय बनावे ॥५॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (महः-ऋतस्य चक्षुः-भव) महतः-यज्ञस्य ब्रह्माण्डस्य भुवनज्येष्ठस्य दर्शकः सूर्यरूपेणाग्ने त्वं भवसि (गोपाः-भुवः) गवां-रश्मीनां पाता च भवसि (ऋताय यत्-वेषि वरुणः) उदकाय मेघादुदकसम्पादनाय पातनाय यदा प्राप्नोषि तदा वरुणो-उदकानां वरणाय वरुणो भवसि “स वा एषोऽपः प्रविश्य सूर्यः वरुणो भवति” [कौ० १९/९] (अपाम्-नपात्-भुवः) अपां न पातयिता-आकाशे स्तम्भयिता भवत्युदकानां यद्वा मेघे जायते तत्र विद्युद्रूपेण (जातवेदः) हे जातवेदस्त्वं जातो वेद्यते जनैः (यस्य हव्यं जुजोषः-दूतः-भुवः) यस्य होतव्यं यज्ञं सेवसे यस्य वा ओषध्यादिकं भोज्यं सेवयसि प्रापयसि तस्मै वा त्वं दूतः प्रेरको जीवनप्रेरको भवसि ॥५॥